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आया है सुब्ह नींद सूँ उठ रसमसा हुआ - आबरू शाह मुबारक कविता - Darsaal

आया है सुब्ह नींद सूँ उठ रसमसा हुआ

आया है सुब्ह नींद सूँ उठ रसमसा हुआ

जामा गले में रात के फूलों बसा हुआ

कम मत गिनो ये बख़्त-सियाहों का रंग-ए-ज़र्द

सोना वही जो होवे कसौटी कसा हुआ

अंदाज़ सीं ज़ियादा निपट नाज़ ख़ुश नहीं

जो ख़ाल हद से ज़ियादा बढ़ा सो मसा हुआ

क़ामत का सब जगत मुनीं बाला हुआ है नाम

क़द इस क़दर बुलंद तुम्हारा रसा हुआ

ज़ाहिद के क़द्द-ए-ख़म कूँ मुसव्विर ने जब लिखा

तब क्लिक हाथ बीच जो था सो असा हुआ

दिल यूँ डरे है ज़ुल्फ़ का मारा वो फूँक सीं

रस्सी सीं अज़्दहे का डरे जूँ डसा हुआ

ऐ 'आबरू' अवल सें समझ पेच इश्क़ का

फिर ज़ुल्फ़ सीं निकल न सके दिल फँसा हुआ

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