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इलाही क्या कभी पूरे ये अरमाँ हो भी सकते हैं - अबरार शाहजहाँपुरी कविता - Darsaal

इलाही क्या कभी पूरे ये अरमाँ हो भी सकते हैं

इलाही क्या कभी पूरे ये अरमाँ हो भी सकते हैं

मिरे काशाना-ए-दिल में वो मेहमाँ हो भी सकते हैं

कोई सय्याद से पूछे कि ओ ना-वाक़िफ़-ए-उल्फ़त

ये दीवाने कहीं पाबंद-ए-ज़िंदाँ हो भी सकते हैं

बता ऐ ख़िज़्र राह-ए-इश्क़ में मंज़िल है ऐसी भी

कहीं हम वाक़िफ़-ए-असरार-ए-जानाँ हो भी सकते हैं

ज़बान-ए-शौक़ पर छा जाएगा मायूसी-ए-पैहम

लब-ए-ख़ामोश रूदाद-ए-दिल-ओ-जाँ हो भी सकते हैं

ब-पास-ए-एहतिराम-ए-इश्क़ हम ख़ामोश हैं वर्ना

परेशाँ कर भी सकते हैं परेशाँ हो भी सकते हैं

कभी ऐ दीदा-ए-खूँ-बाज़ तू ने ये भी सोचा है

ये तोहफ़े बारयाब-ए-बज़्म-ए-जानाँ हो भी सकते हैं

निज़ाम-ए-ज़िंदगी 'अबरार' कब तक दरहम-ओ-बरहम

कहीं यकजा ये औराक़-ए-परेशाँ हो भी सकते हैं

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