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बहुत तज़्किरा दास्तानों में था - अबरार आज़मी कविता - Darsaal

बहुत तज़्किरा दास्तानों में था

बहुत तज़्किरा दास्तानों में था

तो क्या वो कहीं आसमानों में था

मुझे देख कर कल वो हँसता रहा

तो वो भी मिरे राज़-दानों में था

वो हर शब चबाता रहा अज़दहे

सुना है कि वो नौजवानों में था

अजब चीज़ है लम्स की ताज़गी

नशा ही नशा दो जहानों में था

उसे ज़िंदगी मुख़्तसर ही मिली

मगर ख़ंदा-ए-गुल यगानों में था

वजूद उस का धरती से चिमटा रहा

ध्यान उस का ऊँची उड़ानों में था

परिंदे फ़ज़ाओं में फिर खो गए

धुआँ ही धुआँ आशियानों में था

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