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वक़्त गुज़रता नहीं - अबरार अहमद कविता - Darsaal

वक़्त गुज़रता नहीं

वक़्त कोई शाम नहीं

जिसे वहशत से ढाँपा जा सके

न कोई गीत, जिस की लय

हमारे होंटों की गिरफ़्त में हो

ये एक ला-मतनाही ला-तअल्लुक़ है

वक़्त ठहरा रहता है

उन ज़मीनों पर

जहाँ से नए क़ाफ़िले निकल पड़ते हैं

वक़्त-गुज़ारी के कठिन सफ़र पर

गुज़िश्ता बहुत पीछे रह गया

जहाँ तक कोई सड़क नहीं जाती

गाड़ी की खट-खट से

शहर की वीरानी कहाँ कम होती है

मुक़फ़्फ़ल घरों

और क़हवा-ख़ानों की भुनभुनाहट में

सारी बातें तो लोग करते हैं!

किताबों की जिल्दें, काग़ज़ों का शोर

मोबाइल के पैग़ामात

और वक़्त गुज़र जाता है

हालाँकि नहीं गुज़रता

बच्चों को सीढ़ियाँ चढ़ा चुकने के ब'अद

दहलीज़ पर बैठ कर

किसी बे-सम्त उफ़ुक़ को घूरते हुए?

हिसाब करते हुए

उन ख़्वाबों का, जो देखे

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