तुम जो आते हो
दिन निकलते हैं बिखर जाते हैं
शहर बस्ते हैं उजड़ जाते हैं
दस्तकें आहनी दरवाज़े पर
सर को टकरा के पलट जाती हैं
गुम्बद-ए-ख़ामुशी गिरता ही नहीं
चलती रहती है हवा
खेतों में दालानों में
और अपने ही तलातुम में उतर जाती है
हर तरफ़ फूल बिखर जाते हैं
दिल की मिट्टी पे कोई रंग उतरता ही नहीं
आँख नज़्ज़ारा-ए-मौहूम से हटती ही नहीं
ज़ेहन उस हजला-ए-तारीकी-ओ-तन्हाई में
अपने काँटों पे पड़ा रहता है
वक़्त आता है गुज़र जाता है
तुम जो आते हो तो तरतीब उलट जाती है
धुँद जैसे कहीं छट जाती है
नरम पोरों से कोई हौले से
दिल की दीवार गिरा देता है
एक खिड़की कहीं खुल जाती है
आँख इक जल्वा-ए-सद-रंग से भर जाती है
कोई आवाज़ बुलाती है हमें
तुम जो आते हो
तो इस हब्स दुखन के घर से
रंज-ए-आइंदा-ओ-रफ़्ता की थकावट से
निकल लेते हैं
तुम से मिलते हैं
तो दुनिया से भी मिल लेते हैं
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