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पिछले पहर की दस्तक - अबरार अहमद कविता - Darsaal

पिछले पहर की दस्तक

तिरे शहर की सर्द गलियों की आहट

मिरे ख़ून में सरसराई

मैं चौंका

यहाँ कौन है

मैं पुकारा मगर

दूर ख़ाली सड़क पर कहीं

रात के डूबते पहर की ख़ामुशी चल पड़ी

रत-जगों की थकावट में डूबी हुई

आँख से ख़्वाब निकला कोई

लड़खड़ाता हुआ

रात के सर्द आँगन में गिरता हुआ

ख़ाली शाख़ों में अटके हुए

चाँद की आँख से एक आँसू गिरा

और सीने में गुम हो गया

धुँद की नर्म पोरें

मसामों में चलने लगीं

दो तरफ़ ईस्तादा दरख़्तों के नीचे

बहे आँसुओं की महक में मुझे

नींद आने लगी

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