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पस-मंज़र की आवाज़ - अबरार अहमद कविता - Darsaal

पस-मंज़र की आवाज़

किसी भूले नाम का ज़ाइक़ा

किसी ज़र्द दिन की गिरफ़्त में

किसी खोए ख़्वाब का वसवसा

किसी गहरी शब की सरिश्त में

कहीं धूप छाँव के दरमियाँ

किसी अजनबी से दयार के

मैं जवार में फिरूँ किस तरह

ये हवा चलेगी तो कब तलक

ये ज़मीं रहेगी तो कब तलक

खुले आँगनों पे

मुहीब रात झुकी रहेगी तो कब तलक

ये जो आहटों का हिरास है

उसे अपने मैले लिबास से

मैं झटक के फेंक दूँ किस तरह

वो जो मावरा-ए-हवास है

उसे रोज़-ओ-शब के हिसाब से

करूँ दे दिमाग़ में किस तरह

कोई आँसुओं की ज़बाँ नहीं

कोई मासवा-ए-गुमाँ नहीं

ये जो धुँदली आँखों में डूबता कोई नाम है

ये कहीं नहीं

ये कहाँ नहीं

ये क़याम-ए-ख़्वाब दवाम-ए-ख़्वाब

रहूँ इस से दौर में किस तरह

उन्ही साहिलों पे

तड़पती रेत में सो रहूँ

मुझे इज़्न-ए-ज़िल्लत-ए-हस्त हो

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