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मुझे डर लगता है - अबरार अहमद कविता - Darsaal

मुझे डर लगता है

आओ हम आज ही खुल कर रोलें

जाने कब वक़्त मिले

आँख में जितने भरे हैं आँसू

आओ हम आज बहा दें उन को

घात में उम्र भी है

वक़्त भी रफ़्तार भी है

कौन जाने कि मिलें रास्ते कब मंज़िल से

कौन जाने कि रहा होंगे सफ़र से कब तक

कौन जाने यहाँ किस रुत की रिदा से उतरें

फूल जिन में तिरी महकार न हो

कौन ये जान सके तेरे हुरूफ़

मेरे होंटों से कहाँ टूट गिरें

शहर-ए-आइंदा के बुत-ख़ाने में

क्या पता इक तिरी तस्वीर न हो

यूँ तो अब क्या है जो खोना है मुझे

अब तो बस चैन से सोना है मुझे

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