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माफ़ कीजिए गा ख़ान साहिब - अबरार अहमद कविता - Darsaal

माफ़ कीजिए गा ख़ान साहिब

जाने किन रहगुज़ारों से

दौड़े चले आते हैं

लाशें भंभोड़ते, बू सूँघते

बैठ गए हैं लोग

कि बैठे हुओं को काटते नहीं!

वीरानी के अक़ब में

रास्तों और शाह-राहों के कोहराम

और जलती-बुझती रौशनियों के तआक़ुब में

फटे हुए हलक़ के साथ

गाड़ियों के साथ साथ भागते हैं

दीवार पर

टाँग उठा चुकने के ब'अद

मुआफ़ कीजिएगा

फ़तह-अली-ख़ाँ साहिब!

आप का अलाप, कानों में जम गया है

मुर्कियाँ टूटती हैं

हम रुख़्सत हो रहे हैं

जीने के जवाज़ से दस्त-बरदार

पटाख़ों से पतलूनें बचाते

फुदकते फिरते हैं

हमारी क़ौमी मौसीक़ी

काफ़ूर की महक से भी ख़ाली है

सड़ांद है चहार जानिब

और भूँकने की आवाज़ें

बे-सुर, बे-ताल

जान की अमान पाऊँ

तो सीधा आप ही की तरफ़ आऊँगा!

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