हम कि इक भेस लिए फिरते हैं
कौन से देस की बाबत पूछे
वक़्त के दश्त में फिरती
ये ख़ुनुक सर्द हवा
किन ज़मानों की ये मदफ़ून महक
बद-नुमा शहर की गलियों में उड़ी फिरती है
और ये दूर तलक फैली हुई
नींद और ख़्वाब से बोझल बोझल
ए'तिबार और यक़ीं की मंज़िल
जिस की ताईद में हर शय है
बक़ा है लेकिन
अपने मंज़र के अँधेरों से परे
हम ख़ुनुक सर्द हवा सुन भी सकें
हम कि किस देस की पहचान में हैं
हम कि किस लम्स की ताईद में हैं
हम कि किस ज़ो'म की तौफ़ीक़ में हैं
हम कि इक ज़ब्त-ए-मुसलसल हैं
ज़मानों के अबद से लर्ज़ां
वहम के घर के मकीं
अपने ही देस में परदेस लिए फिरते हैं
हम कि इक भेस लिए फिरते हैं
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