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ये रह-ए-इश्क़ है इस राह पे गर जाएगा तू - अबरार अहमद कविता - Darsaal

ये रह-ए-इश्क़ है इस राह पे गर जाएगा तू

ये रह-ए-इश्क़ है इस राह पे गर जाएगा तू

एक दीवार खड़ी होगी जिधर जाएगा तू

शोर-ए-दुनिया को तो सुन रंग-ए-रह-ए-यार तो देख

हम जहाँ ख़ाक उड़ाते हैं उधर जाएगा तू

दर-ब-दर है तो कहीं जी नहीं लगता होगा

वो भी दिन आएगा थक-हार के घर जाएगा तू

आज़िम-ए-हिज्र-ए-मुसलसल हुआ इस मिट्टी से

लौट आएगा यहीं और किधर जाएगा तू

जान जाएगा कि मंज़िल नहीं मौजूद कहीं

ख़ुश-गुमाँ है अभी सरगर्म-ए-सफ़र जाएगा तू

आरज़ू रख उसे पाने की कोई रोज़ अभी

फिर यहीं बाम-ए-तमन्ना से उतर जाएगा तू

ये जो तूफ़ान तिरे गिर्द है दीवानगी का

इक ज़रा तेज़ हुआ और बिखर जाएगा तू

कारवाँ रद हुआ और चुप हुई आवाज़-ए-जरस

क्या अब उस सम्त को ता-हद्द-ए-नज़र जाएगा तू

अब कहाँ ख़्वाब-ए-मोहब्बत कि वो शब दूर नहीं

जब कहीं ख़ाक-भरी नींद से भर जाएगा तू

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