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न घर सुकून-कदा है न कारख़ाना-ए-इश्क़ - आबिद वदूद कविता - Darsaal

न घर सुकून-कदा है न कारख़ाना-ए-इश्क़

न घर सुकून-कदा है न कारख़ाना-ए-इश्क़

मगर ये हम हैं कि लिखते रहे हैं नामा-ए-इश्क़

बहुत से नाम थे अब कोई याद आता नहीं

हमारे दिल में रहा दफ़्न इक ख़ज़ाना-ए-इश्क़

सब अपने अपने तरीक़े से भीक माँगते हैं

कोई ब-नाम-ए-मोहब्बत कोई ब-जामा-ए-इश्क़

तुम्ही पे क्या कि हम अब ख़ुद पे भी नहीं खुलते

तो क्या ये कम है कि हम पर खुला फ़साना-ए-इश्क़

कई ज़माने गए और बदल गया सब कुछ

मगर कभी नहीं बदला तिरा ज़माना-ए-इश्क़

सुलगते रहने की लज़्ज़त उसे कहाँ मा'लूम

कि जब तलक कोई बनता नहीं निशाना-ए-इश्क़

उसे फिर अपनी ख़बर भी नहीं रही 'आबिद'

लगा है जिस को भी इक बार ताज़ियाना-ए-इश्क़

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