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जब से दरिया में है तुग़्यानी बहुत - आबिद वदूद कविता - Darsaal

जब से दरिया में है तुग़्यानी बहुत

जब से दरिया में है तुग़्यानी बहुत

पार जाने में है आसानी बहुत

कोई मंज़र भी नहीं अच्छा लगा

अब के आँखों में है वीरानी बहुत

अपनी क़ीमत तो नहीं लेकिन यहाँ

ऐसे गौहर की है अर्ज़ानी बहुत

खेत हैं बंजर तो सहरा बे-नुमू

वर्ना दरियाओं में है पानी बहुत

उस के चेहरे पर मिरी आँखें सजीं

मेरे चेहरे पर थी हैरानी बहुत

क्या ख़ुलूस-ओ-मेहर की बातें करें

ज़िंदगी में है पशेमानी बहुत

हर किसी को इल्म है 'आबिद-वदूद'

बातें उस की जानी-पहचानी बहुत

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