कहीं से बास नए मौसमों की लाती हुई

कहीं से बास नए मौसमों की लाती हुई

हवा-ए-ताज़ा दर-ए-नीम-वा से आती हुई

ब-तौर-ए-ख़ास कहाँ इस नगर सबा का वरूद

कभी कभी यूँही रुकती है आती जाती हुई

मैं अपने ध्यान में गुम-सुम और एक साअत-ए-शोख़

गुज़र गई मिरी हालत पे मुस्कुराती हुई

सराब-ए-ख़्वाहिश-ए-आसूदगी मगर कोई शय

मिली नहीं है तबीअत से मेल खाती हुई

लहू में तैरती ख़ामोशियों के साथ कहीं

रवाँ-दवाँ है कोई चीख़ सनसनाती हुई

यहाँ वहाँ हैं कई ख़्वाब जगमगाते हुए

कहीं कहीं कोई ताबीर टिमटिमाती हुई

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