न जाने रब्त-ए-मसर्रत है किस क़दर ग़म से
न जाने रब्त-ए-मसर्रत है किस क़दर ग़म से
ख़बर ख़ुशी को मिली भी तो चश्म-ए-पुर-नम से
ज़बान खोलिए ख़ल्वत में बे-हिजाबाना
छुपाई जाती है कब दिल की बात महरम से
किसी की याद में क्या क्या न हम पे बीत गई
जहाँ ने दी थी जो फ़ुर्सत ज़रा हमें ग़म से
शुऊर-ए-शाना-कशी देखिए उन्हें कब आए
मिज़ाज-ए-ज़ीस्त है वाबस्ता ज़ुल्फ़-ए-बरहम से
फ़रेब-ए-दोस्त न खाते तो और क्या करते
यही तो रस्म चली आ रही है आदम से
ये आज कौन सी तक़्सीर हो गई 'नामी'
कि दोस्त भी तो मिलाते नहीं नज़र हम से
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