क्यूँ न अपनी ख़ूबी-ए-क़िस्मत पे इतराती हवा
फूल जैसे इक बदन को छू कर आई थी हवा
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ज़िंदगी भर जिन्हों ने देखे ख़्वाब
ख़ुद सवाल आप ही जवाब हूँ मैं
जब आसमान पर मह-ओ-अख़्तर पलट कर आए
चाँद से अपनी यारी थी
सिर्फ़ कर्ब-ए-अना दिया है मुझे
मुक़द्दर में साहिल कहाँ है मियाँ
और किस का घर कुशादा है कहाँ ठहरेगी रात
लाला-ज़ारों में ज़र्द फूल हूँ मैं
अगले पड़ाव पर यूँही ख़ेमा लगाओगे
बे-तमन्ना हूँ ख़स्ता-जान हूँ मैं