ज़ख़्म देखे जिस्म देखा और पहचाना उसे
धीरे धीरे फिर मुझे मैं याद आने लग गया
हैरतों को देखता था कुछ भी कह पाता न था
आख़िर इक दिन आइना आँसू बहाने लग गया
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अभी से इस में शबाहत मिरी झलकने लगी
ज़मीं के ग़र्ब से सूरज तुलूअ' करता हूँ
कौन कहता है कि वहशत मिरे काम आई है
निकाल लाए हैं सब लोग उस के अक्स में नक़्स
हज़ार ताने सुनेगा ख़जिल नहीं होगा
ज़ख़्म और पेड़ ने इक साथ दुआ माँगी है
आख़िरी बार ज़माने को दिखाया गया हूँ
फ़लक से कैसे मिरा ग़म दिखाई देगा तुझे
ये कार-ए-ख़ैर है इस को न कार-ए-बद समझो
इक अजनबी की तरह है ये ज़िंदगी मिरे साथ
रोज़ इक बाग़ गुज़रता है इसी रस्ते से
क्यूँ चलती ज़मीं रुकी हुई है