अब मनाना उसे मुश्किल है कि ये आख़िरी पल
रूठने के लिए तय्यार हुआ बैठा है
मेरे बाहर तिरे आने की ख़ुशी हो कि न हो
मेरे अंदर कोई सरशार हुआ बैठा है
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ये कार-ए-ख़ैर है इस को न कार-ए-बद समझो
शहर से जब भी कोई शहर जुदा होता है
क्यूँ चलती ज़मीं रुकी हुई है
मियाँ ये इश्क़ तो सब टूट कर ही करते हैं
मैं इस कहानी में तरमीम कर के लाया हूँ
दश्त में उस का आब-ओ-दाना है
हज़ार ता'ने सुनेगा ख़जिल नहीं होगा
इक अजनबी की तरह है ये ज़िंदगी मिरे साथ
बड़े सुकून से अफ़्सुर्दगी में रहता हूँ
पूछता फिरता हूँ मैं अपना पता जंगल से
आख़िरी बार ज़माने को दिखाया गया हूँ