पूछता फिरता हूँ मैं अपना पता जंगल से
आख़िरी बार दरख़्तों ने मुझे देखा था
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शहर से जब भी कोई शहर जुदा होता है
बड़े सुकून से अफ़्सुर्दगी में रहता हूँ
ऐ ख़ुदा एक बार मिल मुझ से
आख़िरी बार ज़माने को दिखाया गया हूँ
सुना रहा हूँ किसी और को कथा अपनी
मैं इस कहानी में तरमीम कर के लाया हूँ
मियाँ ये इश्क़ तो सब टूट कर ही करते हैं
रोज़ इक बाग़ गुज़रता है इसी रस्ते से
गले लगाए मुझे मेरा राज़-दाँ हो जाए
फ़लक से कैसे मिरा ग़म दिखाई देगा तुझे
ज़ख़्म और पेड़ ने इक साथ दुआ माँगी है