मियाँ ये इश्क़ तो सब टूट कर ही करते हैं
किसी से हिज्र अगर वालिहाना हो जाए
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ज़ख़्म और पेड़ ने इक साथ दुआ माँगी है
सब मुझे ढूँडने निकले हैं बुझा कर आँखें
अब मनाना उसे मुश्किल है कि ये आख़िरी पल
हज़ार ताने सुनेगा ख़जिल नहीं होगा
गले लगाए मुझे मेरा राज़-दाँ हो जाए
आसूदगान-ए-हिज्र से मिलने की चाह में
हज़ार ता'ने सुनेगा ख़जिल नहीं होगा
बड़े सुकून से अफ़्सुर्दगी में रहता हूँ
फ़लक से कैसे मिरा ग़म दिखाई देगा तुझे
मैं इस कहानी में तरमीम कर के लाया हूँ
ज़ख़्म देखे जिस्म देखा और पहचाना उसे