शिकस्त
मिरे कलेजे की रग रग से हूक उठती है
मुझे मिरी हर शिकस्तों की दास्ताँ न सुना
न पूछ मुझ से मिरी ख़ामुशी का राज़ न पूछ
मिरे दिमाग़ का हर गोशा दुख रहा है अभी
फ़ज़ा-ए-ज़ुल्मत-ए-माज़ी में ऐ मिरे हमदम
ढके ढके से मिरी कामरानियों के निशाँ
उदास उदास निगाहों की शम्अ' से न टटोल
हर इक के सीना पे बार-ए-शिकस्त है इस वक़्त
तिरा ख़ुलूस मिरी दास्ताँ का उनवाँ है
मिरे हबीब मुझे अब तो अपनी मोहलत दे
कि अपने दर्द को दिल में छुपा के ग़म-ख़ुर्दा
जहाँ से दूर कहीं उस तरफ़ निकल जाऊँ
वो देख वक़्त के चेहरे पे साफ़ लिक्खा है
कि ये शिकस्त मिरी आख़िरी शिकस्त नहीं
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