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वो जो हर राह के हर मोड़ पर मिल जाता है - आबिद आलमी कविता - Darsaal

वो जो हर राह के हर मोड़ पर मिल जाता है

वो जो हर राह के हर मोड़ पर मिल जाता है

अब के पूछेंगे कि उस शख़्स का क़िस्सा क्या है

मैं वो पत्थर हूँ नहीं जिस को मिला संग-तराश

मैं ने हर शक्ल को अपने में समो रक्खा है

यूँही चुप-चाप भला बैठे रहोगे कब तक

कोई दरवाज़ा कहीं यूँ भी खुला करता है

जब भी गिरती है किसी कूचे में कोई दीवार

मुझ को लगता है कोई शख़्स बहुत रोया है

पाँव जलते हैं यहाँ जिस्म भी जल जाएगा

तुम ने किया सोच के सहरा में क़दम रखा है

टूटते बनते ही ये उम्र गुज़र जाएगी

मेरी हर शक्ल में इक नक़्स उभर आता है

हम ने हर दौर के सीने में हैं घोंपे ख़ंजर

और हर दौर के सीने से लहू टपका है

तुम ने पूछा है कि तुम क्या हो कहाँ हो क्यूँ हो

ये तो बतलाओ कि इस सोच में क्या रक्खा है

दश्त के पेड़ों से क्या पूछ रहे हो 'आबिद'

भूल जाओ कि तुम्हें कोई सदा देता है

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