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तुम ने जब घर में अँधेरों को बुला रक्खा है - आबिद आलमी कविता - Darsaal

तुम ने जब घर में अँधेरों को बुला रक्खा है

तुम ने जब घर में अँधेरों को बुला रक्खा है

उठ के सो जाओ कि दरवाज़े पे क्या रक्खा है

फिर किसी शख़्स के रोने की सदा आती है

फिर किसी शख़्स ने बस्ती को जगा रक्खा है

अपनी ख़ातिर भी कोई लफ़्ज़ तराशें यारो

हम ने किस वास्ते यूँ ख़ुद को भुला रक्खा है

देखने को है बदन और हक़ीक़त ये है

एक मलबा है जो मुद्दत से उठा रक्खा है

तू अगर था तो बहुत दूर थे हम तुझ से कि अब

तू नहीं है तो तुझे पास बिठा रक्खा है

हम किसी तरह तुझे ढूँड लें मुमकिन ही नहीं

तू ने हर राह को सहरा से मिला रक्खा है

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