किसी मक़ाम पे हम को भी रोकता कोई

किसी मक़ाम पे हम को भी रोकता कोई

मगर उड़ाए लिए जाती है हवा कोई

तमाम-उम्र न मुझ को मिला वजूद मिरा

तमाम-उम्र मुझे सोचता रहा कोई

मुझे समेट लो या फिर उड़ा के ले जाओ

ये कह के राह-ए-तलब में बिखर गया कोई

यूँही सदाएँ न दो ख़ामुशी के सहरा में

हवा चलेगी तो आ जाएगी सदा कोई

किसी को अपनी निगाहों पे ए'तिबार न था

हमें हमारी तरह कैसे देखता कोई

हज़ार संग हैं राहों में अब भी सोए हुए

ये और बात है हम को जगा गया कोई

बदन के दश्त को हम जिस से पार कर लेते

कहीं मिला न हमें ऐसा रास्ता कोई

मैं बंद कमरे में ख़ामोश रह तो सकता हूँ

मिरे बदन में अगर घुट के मर गया कोई

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