ख़्वाब में गर कोई कमी होती
ख़्वाब में गर कोई कमी होती
आँख मुद्दत से खुल चुकी होती
तुम समुंदर में किस लिए कूदे
आग तो यूँ भी बुझ गई होती
वो तो दरिया उतर गया वर्ना
जाने बस्ती पे क्या बनी होती
वो सदा रात को जो आती थी
जागते रहते तो सुनी होती
दे रही है मिरे बदन को दुआएँ
रात अकेली ठिठुर गई होती
अन-गिनत रंग थे निगाहों में
कोई तस्वीर तो बनी होती
तुम यूँही सोचते रहे 'आबिद'
उम्र यूँ भी गुज़र गई होती
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