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जो शख़्स तुझ को फ़रिश्ता दिखाई देता है - आबिद आलमी कविता - Darsaal

जो शख़्स तुझ को फ़रिश्ता दिखाई देता है

जो शख़्स तुझ को फ़रिश्ता दिखाई देता है

वो आइने से डरा सा दिखाई देता है

किया था दफ़्न जिसे फ़र्श के तले कल रात

वो आज छत से उतरता दिखाई देता है

तिरी निगाह में मुमकिन है कुछ अटक जाए

मुझे तो सिर्फ़ अँधेरा दिखाई देता है

सवाल ज़ेहन में चुभते हैं नश्तरों की तरह

ये ख़ून भी मुझे होता दिखाई देता है

ख़ला में डूब चुकी है निगाह जब मेरी

वो पूछते हैं तुझे क्या दिखाई देता है

निगलता जाता है चुप-चाप ख़ुश्क जंगल उसे

ये आफ़्ताब तो ठंडा दिखाई देता है

नक़ाब बदलो कुछ ऐसे कि मो'जिज़ा हो जाए

हुजूम वर्ना बिखरता दिखाई देता है

तुम्हारी याद के दरिया तमाम सूख चले

जहाँ-तहाँ मुझे सहरा दिखाई देता है

सदाएँ गूँजती रहती हैं रात-भर किस की

मकान वैसे तो सूना दिखाई देता है

जो पेड़ तुम ने लगाया था मेरे आँगन में

वो इस बरस मुझे गिरता दिखाई देता है

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