वो एक दिन जो तुझे सोचने में गुज़रा था
तमाम उम्र उसी दिन की तर्जुमानी है
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हम ऐसे सोए भी कब थे हमें जगा लाते
अभी तो आप ही हाइल है रास्ता शब का
हमीं जहान के पीछे पड़े रहें कब तक
सफ़र के बा'द भी ज़ौक़-ए-सफ़र न रह जाए
दर-ए-ख़याल भी खोलें सियाह शब भी करें
मैं चोट कर तो रहा हूँ हवा के माथे पर
कभी कभी तो ये वहशत भी हम पे गुज़री है
ये जो दुनिया है इसे इतनी इजाज़त कब है
सफ़र के बाद भी ज़ौक़-ए-सफ़र न रह जाए
ख़ला के जैसा कोई दरमियान भी पड़ता
उस से कहना की धुआँ देखने लाएक़ होगा