वहाँ पहले ही आवाज़ें बहुत थीं
सो मैं ने चुप कराया ख़ामुशी को
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मैं चोट कर तो रहा हूँ हवा के माथे पर
कभी कभी तो ये वहशत भी हम पे गुज़री है
सफ़र के बाद भी ज़ौक़-ए-सफ़र न रह जाए
शब भर इक आवाज़ बनाई सुब्ह हुई तो चीख़ पड़े
वो एक दिन जो तुझे सोचने में गुज़रा था
ये जो दुनिया है इसे इतनी इजाज़त कब है
फ़सील-ए-जिस्म गिरा दे मकान-ए-जाँ से निकल
ये जो हम तख़्लीक़-ए-जहान-ए-नौ में लगे हैं पागल हैं
दर-ए-ख़याल भी खोलें सियाह शब भी करें
ये इम्तियाज़ ज़रूरी है अब इबादत में
चलते हुए मुझ में कहीं ठहरा हुआ तू है
अभी तो आप ही हाइल है रास्ता शब का