मैं सोचता हूँ बहुत ज़िंदगी के बारे में
ये ज़िंदगी भी मुझे सोच कर न रह जाए
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अभी तो आप ही हाइल है रास्ता शब का
हम ऐसे सोए भी कब थे हमें जगा लाते
सफ़र के बाद भी ज़ौक़-ए-सफ़र न रह जाए
मक़ाम-ए-वस्ल तो अर्ज़-ओ-समा के बीच में है
फ़सील-ए-जिस्म गिरा दे मकान-ए-जाँ से निकल
ये इम्तियाज़ ज़रूरी है अब इबादत में
सफ़र के बा'द भी ज़ौक़-ए-सफ़र न रह जाए
ये जो दुनिया है इसे इतनी इजाज़त कब है
ख़ला के जैसा कोई दरमियान भी पड़ता
अब इख़्तियार में मौजें न ये रवानी है
तेरी आँखों के लिए इतनी सज़ा काफ़ी है