हमीं जहान के पीछे पड़े रहें कब तक
हमारे पीछे कभी ये जहान भी पड़ता
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कभी कभी तो ये वहशत भी हम पे गुज़री है
शब भर इक आवाज़ बनाई सुब्ह हुई तो चीख़ पड़े
वहाँ पहले ही आवाज़ें बहुत थीं
अब इख़्तियार में मौजें न ये रवानी है
दर-ए-ख़याल भी खोलें सियाह शब भी करें
मैं चोट कर तो रहा हूँ हवा के माथे पर
तेरी आँखों के लिए इतनी सज़ा काफ़ी है
वो एक दिन जो तुझे सोचने में गुज़रा था
ये जो हम तख़्लीक़-ए-जहान-ए-नौ में लगे हैं पागल हैं
ये जो दुनिया है इसे इतनी इजाज़त कब है
चलते हुए मुझ में कहीं ठहरा हुआ तू है