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चलते हुए मुझ में कहीं ठहरा हुआ तू है - अभिषेक शुक्ला कविता - Darsaal

चलते हुए मुझ में कहीं ठहरा हुआ तू है

चलते हुए मुझ में कहीं ठहरा हुआ तू है

रस्ता नहीं मंज़िल नहीं अच्छा हुआ तू है

ता'बीर तक आते ही तुझे छूना पड़ेगा

लगता है कि हर ख़्वाब में देखा हुआ तू है

मुझ जिस्म की मिट्टी पे तिरे नक़्श-ए-कफ़-ए-पा

और मैं भी बड़ा ख़ुश कि अरे क्या हुआ तू है

मैं यूँ ही नहीं अपनी हिफ़ाज़त में लगा हूँ

मुझ में कहीं लगता है कि रक्खा हुआ तू है

वो नूर हो आँसू हो कि ख़्वाबों की धनक हो

जो कुछ भी इन आँखों में इकट्ठा हुआ तू है

इस घर में न हो कर भी फ़क़त तू ही रहेगा

दीवार-ओ-दर-ए-जाँ में समाया हुआ तू है

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