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हक़ मिरा मुझ को मिरे यार नहीं देते हैं - अब्दुश्शुकूर आसी कविता - Darsaal

हक़ मिरा मुझ को मिरे यार नहीं देते हैं

हक़ मिरा मुझ को मिरे यार नहीं देते हैं

धूप में साया-ए-दीवार नहीं देते हैं

कैसे दरिया को करूँ पार कि मेरे मोहसिन

नाव तो देते हैं पतवार नहीं देते हैं

अपनी नामूस की आती है हिफ़ाज़त जिन को

जान दे देते हैं दस्तार नहीं देते हैं

ख़ूगर-ए-अम्न बनाने की है ख़्वाहिश जिन को

अपने बच्चों को वो तलवार नहीं देते हैं

ख़ुद तो 'आसी' ये बसर करते हैं आराम के साथ

चैन नादारों को ज़रदार नहीं देते हैं

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