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रोज़ वहशत कोई नई मिरे दोस्त - अब्दुर्राहमान वासिफ़ कविता - Darsaal

रोज़ वहशत कोई नई मिरे दोस्त

रोज़ वहशत कोई नई मिरे दोस्त

इस को कहते हैं ज़िंदगी मिरे दोस्त

अलम एहसास आगही मिरे दोस्त

सारी बातें हैं काग़ज़ी मिरे दोस्त

देख इज़हारिए बदल गए हैं

ये है इक्कीसवीं सदी मिरे दोस्त

क्या चराग़ों का तज़्किरा करना

रौशनी घुट के मर गई मिरे दोस्त

हाँ किसी अलमिये से कम कहाँ है

मिरी हालत तिरी हँसी मिरे दोस्त

साथ देने की बात सारे करें

और निभाए कोई कोई मिरे दोस्त

इतनी गलियाँ उग आईं बस्ती में

भूल बैठा तिरी गली मिरे दोस्त

लाज़मी है ख़िरद की बेदारी

नींद लेकिन कभी कभी मिरे दोस्त

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