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मेज़ क़लम क़िर्तास दरीचा सन्नाटा - अब्दुर्राहमान वासिफ़ कविता - Darsaal

मेज़ क़लम क़िर्तास दरीचा सन्नाटा

मेज़ क़लम क़िर्तास दरीचा सन्नाटा

कमरा खिड़की ज़र्द उजाला सन्नाटा

मेरी आँखों में धुँदलाई गहरी चुप

और चेहरे पर उतरा पीला सन्नाटा

मेरी आँखों में लिक्खी तहरीर पढ़ो

हिज्र तमन्ना वहशत सहरा सन्नाटा

गूँज उठी है मेरे अंदर ख़ामोशी

नस नस में घुट घुट कर बहता सन्नाटा

उस के साथ चली आती थीं क़िलक़ारें

उस के बा'द हुआ है कितना सन्नाटा

पहले मेरी ज़ात में था मौजूद कोई

अब है मेरी ज़ात का हिस्सा सन्नाटा

झाग उड़ाते दरिया के हंगामे पर

नक़्श हुआ दिल पर अफ़्सुर्दा सन्नाटा

मैं ने घंटों इस उम्मीद पे चुप साधी

शायद कि वो तोड़ ही देगा सन्नाटा

मिल कर बैन करें सब मेरी हिजरत पर

चाँद उदासी झील किनारा सन्नाटा

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