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मज़ीद कुछ नहीं बोला मैं हो गया ख़ामोश - अब्दुर्राहमान वासिफ़ कविता - Darsaal

मज़ीद कुछ नहीं बोला मैं हो गया ख़ामोश

मज़ीद कुछ नहीं बोला मैं हो गया ख़ामोश

इस एहतिमाम से उस ने मुझे कहा ख़ामोश

अब ऐसे हाल में क्या ख़ाक गुफ़्तुगू होगी

कि एक सोच में गुम है तो दूसरा ख़ामोश

सो यूँ हुआ कि लगा क़ुफ़्ल नुत्क़-ओ-लब पे मिरे

मैं तुम से मिल के बहुत देर तक रहा ख़ामोश

जब एहतिमाम से रौंदा गया वजूद मिरा

तो सामने वो खड़ा था गुरेज़-पा ख़ामोश

मैं जानता हूँ मिरी सर-कशीदगी का सबब

सो मुझ से बात न कर मेरे नासेहा ख़ामोश

समाअ'तों में नई गूँज किस ने रक्खी है

कि हर तरफ़ से उठी एक ही सदा ख़ामोश

मैं एक दश्त-ए-तमन्ना में नीम ज़िंदा हूँ

हवास-बाख़्ता घायल बरहना-पा ख़ामोश

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