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गुमान तोड़ चुका मैं मगर नहीं कोई है - अब्दुर्राहमान वासिफ़ कविता - Darsaal

गुमान तोड़ चुका मैं मगर नहीं कोई है

गुमान तोड़ चुका मैं मगर नहीं कोई है

सरा-ए-फ़िक्र में बैठा हुआ कहीं कोई है

मिरे ख़याल को देता है नौ-ब-नौ चेहरे

है आस पास कोई लम्स-ए-मरमरीं कोई है

मिरा यक़ीन कि दुनिया में हूँ अकेला मैं

सदा-ए-दिल मुझे कहती है ग़म-नशीं कोई है

तिरी तबाही में शामिल नहीं है ग़ैर कोई

उसे तलाश तो कर मार-ए-आस्तीं कोई है

निगाह से नहीं जाता कोई ख़याल-नुमा

हवास-ओ-होश-ओ-ख़िरद के बहुत क़रीं कोई है

मिरा तुम्हारा तअल्लुक़ बिगड़ के बन गया है

मिरे तुम्हारे ख़यालात का अमीं कोई है

वरा-ए-ज़ेहन-ओ-ज़माँ किस ने काएनात बुनी

तू कैसे कहता है कोई नहीं नहीं कोई है

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