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अगर तुम रोक दो इज़हार-ए-लाचारी करूँगा - अब्दुर्राहमान वासिफ़ कविता - Darsaal

अगर तुम रोक दो इज़हार-ए-लाचारी करूँगा

अगर तुम रोक दो इज़हार-ए-लाचारी करूँगा

जो कहनी है मगर वो बात मैं सारी करूँगा

मिरा दिल भर गया बस्ती की रौनक़ से सौ अब मैं

किसी जलते हुए सहरा की तय्यारी करूँगा

सर-ए-राह तमन्ना ख़ाक डालूँगा मैं सर में

जो आँसू बुझ गए उन की अज़ा-दारी करूँगा

मुझे अब आ गए हैं नफ़रतों के बीज बोने

सो मेरा हक़ ये बनता है कि सरदारी करूँगा

मैं ले आऊँगा मैदाँ में सभी लफ़्ज़ों के लश्कर

और उन से लौह-ए-फ़िक्र-ओ-फ़न पे पुरकारी करूँगा

कई ग़म आ गए हैं हाल मेरा पूछने को

मैं अब इस हाल में किस किस की दिलदारी करूँगा

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