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कुछ न किया अरबाब-ए-जुनूँ ने फिर भी इतना काम किया - अब्दुर रऊफ़ उरूज कविता - Darsaal

कुछ न किया अरबाब-ए-जुनूँ ने फिर भी इतना काम किया

कुछ न किया अरबाब-ए-जुनूँ ने फिर भी इतना काम किया

दार-ब-दार उफ़्ताद से खेले ज़ुल्फ़-ब-ज़ुल्फ़ आराम किया

सावन शोले भड़के गुलशन गुलशन आग लगी

कैसा सूरज उभरा जिस ने सुब्ह को आतिश-नाम किया

तन्हाई भी सन्नाटे भी दिल को डसते जाते हैं

रहगीरो किस देस में आ कर हम ने आज क़याम किया

क़र्या-ए-गुल से दश्त-ए-बला तक अहल-ए-हवस की यूरिश थी

कुछ तो समझ कर दीवानों ने तर्क-ए-जादा-ए-आम किया

रात के हाथों कब तक रहता शहर-ए-निगाराँ तीरा-ओ-तार

अपने लहू से हम ने चराग़ाँ आख़िर गाम-ब-गाम किया

ऐश भी गुज़रे रंज भी गुज़रे दिल की हालत एक रही

कब जश्न-ए-आग़ाज़ मनाया कब ख़ौफ़-ए-अंजाम किया

'मीर' के ज्ञानी लाखों देखे 'मीर' सी किस में बात 'उरूज'

मेरी बीती आप ने कह लें ख़ुद को अबस बदनाम किया

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