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टूट कर देर तलक प्यार किया है मुझ को - अब्दुर्रहीम नश्तर कविता - Darsaal

टूट कर देर तलक प्यार किया है मुझ को

टूट कर देर तलक प्यार किया है मुझ को

आज तो इस ने ही सरशार किया है मुझ को

वो महकता हुआ झोंका था कि नेज़े की अनी

छू के गुज़रा है तो ख़ूँ-बार किया है मुझ को

मैं भी तालाब का ठहरा हुआ पानी था कभी

एक पत्थर ने रवाँ धार किया है मुझ को

मुझ से अब उस का तड़पना नहीं देखा जाता

जिस ने चलती हुई तलवार किया है मुझ को

मैं बुलंदी से उसे देख रहा हूँ 'नश्तर'

जिस ने पस्ती का गुनहगार किया है मुझ को

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