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फिर इक नए सफ़र पे चला हूँ मकान से - अब्दुर्रहीम नश्तर कविता - Darsaal

फिर इक नए सफ़र पे चला हूँ मकान से

फिर इक नए सफ़र पे चला हूँ मकान से

कोई पुकारता है मुझे आसमान से

आवाज़ दे रहा है अकेला ख़ुदा मुझे

मैं उस को सुन रहा हूँ हवाओं के कान से

कुछ दिन तो बे-घरी का तमाशा भी देख लूँ

यूँ भी है जी उचाट पुराने मकान से

दोनों ही हम-सफ़र थे हवाओं के दोश पर

पर मैं हूँ चूर चूर सफ़र की तकान से

पैरों तले दबी है वही रेत की चटान

मुझ को हवा ने फेंक दिया आसमान से

वो ज़द पे आ गया था निहत्ता भी था मगर

मैं ने ही कोई तीर न छोड़ा कमान से

मेरे लबों पे खेल रही है वही हँसी

हर-चंद रेत रेत हुआ हूँ चटान से

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