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अगर हो ख़ौफ़-ज़दा ताक़त-ए-बयाँ कैसी - अब्दुर्रहीम नश्तर कविता - Darsaal

अगर हो ख़ौफ़-ज़दा ताक़त-ए-बयाँ कैसी

अगर हो ख़ौफ़-ज़दा ताक़त-ए-बयाँ कैसी

नवा-ए-हक़ न सुनाए तो फिर ज़ियाँ कैसी

उठाओ हर्फ़-ए-सदाक़त लहू को गर्म करो

जो तीर फेंक नहीं सकती वो कमाँ कैसी

उन्हें ये फ़िक्र कि मेरी सदा को क़ैद करें

मुझे ये रंज कि इतनी ख़मोशियाँ कैसी

हवा के रुख़ पे लिए बैठा हूँ चराग़ अपना

मिरे ख़ुदा ने मुझे बख़्श दी अमाँ कैसी

हवा चले तो उसे कौन रोक सकता है

उठा रखी है ये दीवार दरमियाँ कैसी

अगर ये मौसम-ए-गुल है तो ज़र्द-रू क्यूँ है

दिल-ओ-नज़र पे ये कैफ़िय्यत-ए-ख़िज़ाँ कैसी

न तार तार क़बा है न दाग़ दाग़ बदन

मुजाहिदों के सरों से गई अज़ाँ कैसी

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