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मिज़्गाँ ने रोका आँखों में दम इंतिज़ार से - अब्दुल्ल्ला ख़ाँ महर लखनवी कविता - Darsaal

मिज़्गाँ ने रोका आँखों में दम इंतिज़ार से

मिज़्गाँ ने रोका आँखों में दम इंतिज़ार से

उलझे हैं ख़ार दामन-ए-बाद-ए-बहार से

मतलब ख़िज़ाँ से है न ग़रज़ है बहार से

हम दिल उठा चुके चमन-ए-रोज़गार से

ये गुल खिला न लाला-रुख़ों के फ़िराक़ में

हम दाग़ ले चले चमन-ए-रोज़गार से

बिस्मिल जो हैं तो हम हैं तड़पते जो हैं तो हम

वो ख़ुश हैं सैद-गाह में सैर-ए-शिकार से

आग़ाज़-ए-इश्क़ है वो बढ़ाते हैं रस्म-ओ-राह

हम दिल में ख़ौफ़ करते हैं अंजाम-ए-कार से

उन को हुआ जो नश्शा-ए-मय मेरी बन पड़ी

पर्दा खुला न दामन-ए-मौज-ए-ख़ुमार से

कलकत्ता से भी कीजिए हासिल कोई तो इल्म

सीखेंगे सेहर-ए-सामरी हम चश्म-ए-यार से

ऐ 'मेहर' ये ग़ज़ल वो पुर-एजाज़-ओ-गर्म है

'आतिश' अगर सुने निकल आए मज़ार से

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