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क्या कीजिए रक़म सनद-ए-एहतिशाम-ए-ज़ुल्फ़ - अब्दुल्ल्ला ख़ाँ महर लखनवी कविता - Darsaal

क्या कीजिए रक़म सनद-ए-एहतिशाम-ए-ज़ुल्फ़

क्या कीजिए रक़म सनद-ए-एहतिशाम-ए-ज़ुल्फ़

है दफ़्तर-ए-जमाल पे तुग़रा-ए-लाम-ए-ज़ुल्फ़

ख़िदमत हो ग़ाज़ा-ए-गुल-ए-रुख़ की नसीम को

मौज-ए-हवा चमन में करे इंतिज़ाम-ए-ज़ुल्फ़

फ़स्ल-ए-बहार आई जुनूँ-ख़ेज़ देखिए

सौदाइयों को आने लगे फिर पयाम-ए-ज़ुल्फ़

मूज़ी जो सर चढ़ा तो बना मार-ए-आस्तीं

सर पे न चाहिए था बुतों के मक़ाम-ए-ज़ुल्फ़

सौदा-ए-ज़ुल्फ़ चीन-ए-जबीं ने मिटा दिया

ताराज चीनियों ने किया आ के शाम-ए-ज़ुल्फ़

कब हुस्न-ए-आरिज़ी पे लटकती है सुब्ह-ओ-शाम

इस्लाम पर है ता'न से हर-दम सलाम-ए-ज़ुल्फ़

छुट के उठा रहे हैं असीरान-ए-दाम-ए-ज़ुल्फ़

आराम अब कहाँ दिल-ए-वहशी है राम-ए-ज़ुल्फ़

बालों को अपने तुम रुख़-ए-रौशन पे छोड़ दो

फेंको मियान-ए-चश्मा-ए-ख़ुर्शीद दाम-ए-ज़ुल्फ़

तक़रीर क्यूँ न उलझी हुई बर ज़बाँ रहे

है दर्स में रिसाला-ए-इल्म-ए-कलाम-ए-ज़ुल्फ़

दीवाने हम हैं गर्दिश-ए-लैल-ओ-नहार के

है सुब्ह सुब्ह रू-ए-परी-शाम शाम-ए-ज़ुल्फ़

पाया सियाह-बख़्ती-ए-उश्शाक़ ने भी औज

फ़ीरोज़ा-ए-फ़लक पे किया कुंदा नाम-ए-ज़ुल्फ़

ज़ुल्फ़ें हवा से कब रुख़-ए-आरिज़ पे आ गईं

है सब्ज़ा-ए-बहार के मुँह में लगाम-ए-ज़ुल्फ़

आए सियाह-दिल हैं रक़ीबों के उस पे 'मेहर'

पोशिश में है अबस हरम-ए-एहतिराम-ए-ज़ुल्फ़

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