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रूठे हैं हम से दोस्त हमारे कहाँ कहाँ - अब्दुल्लतीफ़ शौक़ कविता - Darsaal

रूठे हैं हम से दोस्त हमारे कहाँ कहाँ

रूठे हैं हम से दोस्त हमारे कहाँ कहाँ

टूटे हैं ज़िंदगी के सहारे कहाँ कहाँ

दुनिया की बाज़गश्त में अपनी ही है सदा

ऐसे में कोई तुझ को पुकारे कहाँ कहाँ

काबे में था सकूँ न कलीसा में चैन था

तुझ से बिछड़ के दिन ये गुज़ारे कहाँ कहाँ

तू था रग-ए-गुलू से ज़ियादा क़रीब-तर

ढूँढ आए तुझ को दीद के मारे कहाँ कहाँ

तारे कहीं हैं फूल कहीं हैं गुहर कहीं

बिखरे हुए हैं अश्क हमारे कहाँ कहाँ

शम्अ' भी मुज़्तरिब है पतंगा भी मुज़्तरिब

पहुँचे हैं सोज़-ए-ग़म के शरारे कहाँ कहाँ

फ़ुर्सत मिले कभी तो शब-ए-ग़म से पोंछना

टूटे हैं चश्म-ए-'शौक़' से तारे कहाँ कहाँ

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