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सुलग रहा है कोई शख़्स क्यूँ अबस मुझ में - अब्दुल्लाह कमाल कविता - Darsaal

सुलग रहा है कोई शख़्स क्यूँ अबस मुझ में

सुलग रहा है कोई शख़्स क्यूँ अबस मुझ में

बुझेगा कैसे अभी शो'ला-ए-नफ़स मुझ में

अजीब दर्द सा जागा है बाएँ पस्ली में

अजब शरार-ए-तलब सा है पेश-ओ-पस मुझ में

मैं शाख़ शाख़ से लिपटूँ शजर शजर चूमूँ

पनप रही है अजब लज़्ज़त-ए-हवस मुझ में

न कोई नक़्श-ए-यक़ीं है न कोई अक्स-ए-गुमाँ

धुआँ धुआँ है अभी से नया बरस मुझ में

न ज़ीस्त की कोई हलचल न मौत ही की फ़ुग़ाँ

है कोहर कोहर सा इक शहर-ए-बे-हरस मुझ में

बस इक परिंदा सा पर फड़फड़ा के चीख़ता है

बहुत उदास है अब मौसम-ए-क़फ़स मुझ में

कभी तो गुज़रे इधर से भी तुंद मौज-ए-हवा

हैं जम्अ' कितने ही मौसम के ख़ार-ओ-ख़स मुझ में

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