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ख़ुश-शनासी का सिला कर्ब का सहरा हूँ मैं - अब्दुल्लाह कमाल कविता - Darsaal

ख़ुश-शनासी का सिला कर्ब का सहरा हूँ मैं

ख़ुश-शनासी का सिला कर्ब का सहरा हूँ मैं

कौन पहचाने कि इक दश्त-ए-तमन्ना हूँ मैं

सर्द पानी की ज़बाँ चाटती रहती है मुझे

कोहर में डूबा हुआ कोई जज़ीरा हूँ मैं

अपनी वीरान सी आँखों को सजा लो मुझ से

फिर न हाथ आऊँगा उड़ता हूँ सपना हूँ मैं

भूल जाओगे मुझे तुम भी सहर होने तक

आख़िर-ए-शब का कोई टूटता लम्हा हूँ मैं

टूटा-फूटा ही सही फिर भी कशिश रखता हूँ

मुझ से महज़ूज़ तो हो लो कि खिलौना हूँ मैं

एक दुश्नाम है ये तर्ज़-ए-तआ'रुफ़ मुझ को

यारो इस शहर का देरीना शनासा हूँ मैं

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