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वादा-ए-वस्ल है लज़्ज़त-ए-इंतिज़ार उठा - अब्दुल्लाह कमाल कविता - Darsaal

वादा-ए-वस्ल है लज़्ज़त-ए-इंतिज़ार उठा

वादा-ए-वस्ल है लज़्ज़त-ए-इंतिज़ार उठा

और फिर उम्र भर इक ग़म-ए-ए'तिबार उठा

उस का ग़म मेरे दिल में है अब बाँसुरी की तरह

नग़्मा-ए-दर्द से ज़ख़्मा-ए-इख़्तियार उठा

मैं उठा तो फ़लक से बहुत चाँद तारे गिरे

और सहरा-ए-जाँ में बहुत ग़म-ए-ग़ुबार उठा

कुछ रहा मेरे दिल में तो इक इज़्तिराब रहा

मैं सदा अपनी ही ख़ाक से बे-क़रार उठा

ऐ ख़ुदा रिज़्क़-ए-परवाज़ दे शहपरों को मिरे

मेरे अतराफ़ से आसमाँ का हिसार उठा

तू मुझे आसमाँ दे न दे बे-ज़मीन न कर

दश्त-ए-जाँ से मिरे मौसम-ए-ताब-कार उठा

या मिरी आँख से छीन ले सब ख़ज़ाना-ए-ख़्वाब

या मिरी ख़ाक से ज़िंदगी का फ़िशार उठा

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