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क़दम क़दम पे नया इम्तिहाँ है मेरे लिए - अब्दुल्लाह कमाल कविता - Darsaal

क़दम क़दम पे नया इम्तिहाँ है मेरे लिए

क़दम क़दम पे नया इम्तिहाँ है मेरे लिए

ये शहर आज भी इक हफ़्त-ख़्वाँ है मेरे लिए

नहीं है अब कोई एहसास-ए-रोज़-ओ-शब भी मुझे

बस एक अर्सा-ए-पैकार-ए-जाँ है मेरे लिए

न रहगुज़ार-ए-शजर-ए-दार है न आब-ओ-सहाब

ये तेज़ धूप ये सहरा-ए-जाँ है मेरे लिए

मैं इक सितारा हूँ उस के फ़लक से टूटा हुआ

वो धुँद होती हुई कहकशाँ है मेरे लिए

समेट लेती है मुझ को मैं टूटा-फूटा सही

ये रात ख़िर्क़ा-ए-आवार्गां है मेरे लिए

महकते रहते हैं ख़्वाबों में हिजरतों के गुलाब

नई ज़मीन नया आसमाँ है मेरे लिए

उबूर करना है दरिया-ए-शोर मुझ को 'कमाल'

और एक कश्ती-ए-बे-बादबाँ है मेरे लिए

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