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हसीन ख़्वाब न दे अब यक़ीन-ए-सादा दे - अब्दुल्लाह कमाल कविता - Darsaal

हसीन ख़्वाब न दे अब यक़ीन-ए-सादा दे

हसीन ख़्वाब न दे अब यक़ीन-ए-सादा दे

मिरे वजूद को या रब नया लबादा दे

ग़म-ए-हयात को फैला दे आसमानों तक

दिल-ए-तबाह को वुसअत भी कुछ ज़ियादा दे

मुझे क़रार न दे तू पस-ए-ग़ुबार-ए-नफ़स

मैं शह-सवार हूँ मैदान भी कुशादा दे

न छीन मुझ से मिरा ज़ौक़-ए-ख़ुद-नवर्दी भी

मिरे क़दम को भी मंज़िल न दे इरादा दे

मिरे रफ़ीक़ों को दे हौसला कि संग उठाएँ

मिरे ख़ुलूस को हर संग-ए-सद-इफ़ादा दे

मिरे हरीफ़ों के दम-ख़म में हो कमी तो उन्हें

मिरे ग़ुरूर से तौफ़ीक़-ए-इस्तिफ़ादा दे

चमक दे चाँद को ठंडक हवा को दिल को उमंग

उदास क़िस्से को फिर एक शाहज़ादा दे

कि मेरी ज़ात भी जिस में धुआँ धुआँ हो जाए

कभी कभी मुझे वो सज्दा बे-इरादा दे

उतार दे मिरी रग रग में फिर से सब्ज़ लहू

सुकूत-ए-दश्त को फिर शोरिश-ए-इआदा दे

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