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अपने होने का इक इक पल तजरबा करते रहे - अब्दुल्लाह कमाल कविता - Darsaal

अपने होने का इक इक पल तजरबा करते रहे

अपने होने का इक इक पल तजरबा करते रहे

नोक-ए-नेज़ा पर भी हम रक़्स-ए-अना करते रहे

इक मुसलसल जंग थी ख़ुद से कि हम ज़िंदा हैं आज

ज़िंदगी हम तेरा हक़ यूँ भी अदा करते रहे

हाथ में पत्थर न था चेहरे पे वहशत भी न थी

फिर वो क्या था जिस पे हम यूँ क़हक़हा करते रहे

कुछ न कुछ तो पेश-ए-मंज़र में भी शायद था कहीं

कुछ पस-ए-मंज़र भी हम आब-ओ-हवा करते रहे

बे-तलब बढ़ता रहा हर लम्हा क़र्ज़-ए-जाँ का बोझ

बे-सबब ही हर नफ़स ख़ुद को अदा करते रहे

दूर तक फैला दिए कोहसार जंगल वादियाँ

रिज़्क़ आँखों को दिया हर पल नया करते रहे

तुम तो ऐ ख़ुशबू हवाओ उस से मिल कर आ गईं

एक हम थे ज़ख़्म-ए-तन्हाई हरा करते रहे

ज़हर ख़ुद बोते रहे उजली हवाओं में 'कमाल'

चंद साँसों को भी हम बे-ज़ाइक़ा करते रहे

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